निदा फ़ाज़ली जी का एक शेर है, “एक से हो गए मौसमों के चेहरे सारे, मेरी आँखों से कहीं खो गया मंज़र मेरा!” ज़िंदगी के मायने और क्या है ये चाहे पता ना चल पाए तो कोई बात नहीं, खुद से एक मुलाकात और खुद से खुद की पहेचान ज़रूरी है| सच – झूठ, सही – गलत, क्यों, क्या से ऊपर उठकर, मुक्त मन से कुछ लम्हों के लिए ही सही स्वयं से मिलने की इस कविता में प्रस्तुत कामना आप भी रखते है क्या?
क्या सच, क्या झूठ
क्या सही, क्या ग़लत
ये प्रश्न जहाँ नहीं
प्रश्न हो तब भी
नहीं अब उत्तर की तलब
द्वंद्व से खाली मैं
अपने भीतर डूबना चाहता हूँ
मैं मुझसे मिलना चाहता हूँ
जब ज़िक्र हुआ था हस्ती का
शोर मचाया था इन हवाओं ने
मौज में थी सारी दुनिया
मैं तो खड़ा मौन
फिर भीतर कैसा ज्वार मस्ती का
उस मौन की मस्ती में
साँस साँस पिघलना चाहता हूँ
मैं मुझसे मिलना चाहता हूँ
समंदर में नहाऊ
लेट जाऊँ रेत में
दौडूँ खुले आकाश के नीचे
खो जाऊँ किसी खेत में
धूप को लेकर आगोश में
चाहत की बाहें फैलाना चाहता हूँ
मैं मुझसे मिलना चाहता हूँ
बंधन की वेदना
वेदना का बंधन
यह कैसा निरंतर प्रवाह
किसी उन्माद में ही मुग्ध
मैं अंधाधुंध जी रहा
ठोकरों से ही मिले तो क्या
राह जो पूर्णता की
चलते चलते कहीं
अहम् ज़रूर मिल जायेगा मिटटी में
फिर हो कर धूल धूल
व्योम भर में फ़ैल जाऊँ
ऐसी एक लहर में डोलना चाहता हूँ
मैं मुझसे मिलना चाहता हूँ