“ये क्या जगह है दोस्तो, ये कौन सा दयार है| हद-ऐ-निगाह तक जहां ग़ुबार ही ग़ुबार है||” – ‘शहरयार’ जी की ये पंक्तियाँ एक शहरी इंसान की भावनाएं व्यक्त करने के लिए काफ़ी है| सपने दिखाता शहर, ज़िंदगी को समजने, समजाने के बड़े अलग ढंग जानता व आज़माता है| हिसाब का पक्का शहर हमें जो कुछ भी देता है, सूद समेत वापस भी लेता है| यही उसका तरीका है और यही उसका चलन भी!
खिड़की जितना सूरज है और
छज्जे जितनी चांदनी;
चुल्लू जितने दिल है यहाँ और
मुठ्ठी भरके आमदनी,
ये अपना शहर है!
चिड़ियों से पहले यंत्र है जगते,
सारे एक ही दौड़ है भगते;
धुएँ, धूल और धक्कों से
हो शुरू कहानी,
यूँ होती सहर है!
दिल की जगह जेबें रखी है,
‘मतलब’ से यारी पक्की है;
लोलुपता ही लगे शहद सी
नातों की नींव में बेईमानी,
व लालच का ज़हर है!
थोडा और, और थोडा बस,
कुछ और ज़रा के वास्ते;
सांसों की लगाते होड़
जीवनभर छाने रास्ते,
क्यों कुछ नोटों का दाम,
तेरी पूरी ज़िंदगानी?
ये कैसा कहर है?
सफलता का पैमाना यहाँ चीज़ें है,
जुर्रतें लांघती दहलीज़े है;
बेच के नींदें दौलत जो अर्जित होती है
लागत में फिर सपनों की है वही चुकानी,
यही गुज़र-बसर है!
सराब जैसे ख़्वाब हमको तू दिखलाए,
कशिश अजब कि बंदे तुझमे ग़ुम हो जाएँ;
चंद सुखों की किंमत यहाँ बस कुछ आंसू है,
तो रीत ये तेरी लगे है इसको बड़ी सुहानी!
जो तेरा बशर है!
बाकि जहां ,
खिड़की जितना सूरज है और
छज्जे जितनी चांदनी;
चुल्लू जितने दिल है वहाँ और
मुठ्ठी भरके आमदनी,
वही अपना शहर है!
*सहर = सवेरा, *लोलुपता = लालच, *अर्जित = कमाई हुई, *पैमाना = नाप, परिमाण, *गुज़र-बसर = निर्वाह, *सराब = मृगतृष्णा, *बशर = इंसान
Very impressive…Excellent….!!!!