प्रेम का शिखर वो जगह है जहां व्यक्ति स्वयं के अलावा और कुछ लेकर नहीं पहुँच सकता| व्यक्ति का अहंकार जब उसके व्यक्तित्व से प्रतिबिंबित होने लगे, तब वह अपने आसपास प्रसरते अंधकार को अपनाने लगता है| आतंरिक अंधकार ख़ुद से ख़ुद की पहचान नहीं होने देता और व्यक्ति भरे विश्वमें अकेला रहेना स्वीकार कर उसे जीवन बनाने लगता है| प्रस्तुत कविता ऐसे ही एक व्यक्तित्व की ज़ुबानी है की कैसे वह अहंकार के संग जीते हुए हरदिन अपने को एक नए आयाम में देख पाता है|
शलभ शिखा तक न पहुंच पाया
न तो वो जल पाया
न तो वो मिट पाया
तिमिर में ही तृप्त
नया साल मनाया
राह जो भटक गए थे वह
न प्रणय पथ पर लौट पाया
न तो आनंद की वंचना की
न कभी शोक से लौट पाया
समय की बहती लहर में
न कभी अहम को गिराया
न कभी खुद को ऊपर उठाया
स्वरूप के स्वप्न में मुग्ध
नया साल मनाया
बरस बीतते गए पन्नों पर पर
गुजरती जिंदगी का ख़याल न आया
लोग मिलते रहे बिछड़ते रहे
कभी खुद से मिलने का ख़याल न आया
न कभी सवाल कर पाया
न कभी जवाब ढूंढ पाया
न बदला मैं, न तुम, न हमारा वक्त बदल पाया
यह सिलसिला हर साल दोहराया
समय की बहती धारा में रहकर स्थिर
नया साल मनाया||